राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्त्रोत

राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्त्रोत


अभिलेखों के अध्ययन को ‘ऐपियोग्राफी’ कहा जाता है। अभिलेखों से वंशावली, शासकीय नियम, उपाधियाँ, विजय, नागरिकों के द्वारा किए गए निर्माण कार्य, वीर पुरुषों का योगदान तथा सतीयों की महिमा की जानकारी मिलती है।

प्रारंभिक शिलालेख की भाषा संस्कृत थी जबकि मध्यकाल में फारसी, उर्दू, संस्कृत व राजस्थानी भाषा में शिलालेखों की रचना की गई। जिन शिलालेखों पर किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है, उसे प्रशस्ति कहा गया।


  1. महत्त्वपूर्ण शिलालेख एवं प्रशस्तियाँ

(i) घोसुण्डी  चित्तौड़ से प्राप्त इस शिलालेख से अश्वमेघ यज्ञ की जानकारी मिलती है। यह राजस्थान में वैष्णव या भागवत सम्प्रदाय से सम्बन्धित सर्वाधिक प्राचीन शिलालेख है। द्वितीय शताब्दी ई.पू. का यह शिलालेख उदयपुर संग्रहालय में है।

(ii) मानमोरी  चित्तौड़ में मानसरोवर झील के पास स्थित यह शिलालेख कर्नल जेम्स टॉड को मिला। मौर्य वंश के बारे में इससे जानकारी मिलती है।

(iii) बिजोलिया (1170 ई.)  संस्कृत भाषा के इस शिलालेख से चौहान शासकों की जानकारी के साथ-साथ धर्म व शिक्षण व्यवस्था की भी जानकारी प्राप्त होती है। इसका रचयिता गुणभद्र था इसमें सांभर व अजमेर के चौहानों को वत्सगौत्रीय ब्राह्मण बताते हुए उनकी उपलब्धियों का उल्लेख मिलता है। इस अभिलेख के अनुसार वासुदेव चाहमान ने शाकंभरी में चौहान वंश की स्थापना की तथा सांभर झील बनवाई।


(iv) चीरवा  उदयपुर से प्राप्त इस शिलालेख से मंदिर निर्माण, भूमि अनुदान व सती प्रथा की जानकारी प्राप्त होती है। रत्नप्रभ सूरी, पार्श्व चन्द्र व देल्हण नामक विद्वानों के बारे में भी जानकारी चीरवा शिलालेख से मिलती है। इस लेख से पाशुपत व वैष्णव धर्म के बारे में भी विस्तार से जानकारी मिलती है।

(v) रणकपुर प्रशस्ति – रणकपुर के जैन मंदिर में लगी हुई इस प्रशस्ति से मेवाड़ के शासक बप्पा रावल से महाराणा कुंभा तक की वंशावली प्राप्त होती है। इस प्रशस्ति में “नाणक’ शब्द प्रयोग मुद्रा के लिए किया गया है। स्थानीय भाषा में आज भी “नाणा’ शब्द मुद्रा के लिए प्रयोग में लिया जाता है। इसमें बापा रावल एवं कालभोज को अलग-अलग व्यक्ति बताया गया है। इसका प्रशस्तिकार देपाक था।

(vi) कीर्ति प्रशस्ति

1460 ई. में अत्रि व महेश के द्वारा इस प्रशस्ति की रचना की गई। वर्तमान में इस प्रशस्ति की 2 शिलाएँ ही उपलब्ध है। संस्कृत भाषा में रचित इस प्रशस्ति से बप्पा रावल, हम्मीर सिसोदिया, महाराणा कुंभा के बारे में जानकारी मिलती है। इस प्रशस्ति में कुंभा काे दान गुरु व शैल गुरु (पहाड़ी दुर्गों का विजेता) कहा गया है। कुंभा द्वारा रचित पुस्तक चंडीशतक व संगीतराज के बारे में जानकारी भी इसी प्रशस्ति से मिलती है।


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