राजस्थान की मृदा नोट्स




मिट्टी की समस्याएँ

  • (1) प्राकृतिक कारण तथा (2) मानवीय कारण।
  • Water Erosion :(i) Sheet erosion (परत अपरदन) पश्चिम राजस्थान में।
  • (ii) Gully erosion (अवनालिका अपरदन) – चम्बल के अपवाह क्षेत्र में यह क्षेत्र डांग क्षेत्र कहलाते हैं।
  • सर्वाधिक जल अपरदन-चम्बल, द्वितीय-घग्घर।
  • सेम की समस्या :कृत्रिम जल प्रवाह के क्षेत्र में अर्थात् नहरी क्षेत्रों में जहां भू. परत के नीच जिप्सम या चूने की चट्टाने हैं। इसक कारण चूना ऊपर आकर सेम की समस्या उत्पन्न करता है। इसके कारण बीज अंकुरित नहीं हो पाते।
  • सेम का मुख्य कारण प्राकृतिक हास है।
  • यहां वर्तमान में इस समस्या के निवारण के लिए Indo-dutch जल निकास परियोजना चल रही है। यह नीदरलैण्ड की सहायता से चल रही है।
  • नर्मदा नहर परियोजना में सम्पूर्ण सिंचाई फव्वारा पद्धति से की जायेगी यह अनिवार्य है।
  • देश की कुल व्यर्थ भूमि का 20 प्रतिशत भाग राजस्थान में है।
  • क्षेत्रफल की दृष्टि से राज्य में सर्वाधिक व्यर्थ भूमिजैसलमेर (0%) जिले में है।
  • उपलब्ध क्षेत्र के प्रतिशत की दृष्टि सेराजसमंद जिला सर्वाधिक व्यर्थ पठारी भूमि क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।
  • लवणीय परती भूमि पर सबसे अधिक क्षेत्रपाली जिले में है।
  • सर्वाधिक परती भूमिजोधपुर जिले में है।
  • सर्वाधिक बीहड़ भूमिधौलपुर जिले में है।


  • क्षेत्रफल की दृष्टि से अधिकांश बड़े जिले राजस्थान के उत्तर पश्चिमी रेगिस्तान भाग में है।
  • लवणीतया की समस्या कम करने हेतु रॉक फॉस्फेट, पाइराइट का प्रयोग या सुबबूल (लुसिआना ल्यूकोसेफला) उगाना कारगर है।
  • क्षारीयता की समस्या दूर करने हेतु जिप्सम की खाद या ग्वार की फसल की कटाई का प्रयोग किया जाता है।
  • मृदा अपरदन को रेंगती हुई मृत्यु कहा जाता है।
  • मूंगफलीपीली मिट्टी के क्षेत्रों में अधिक बोयी जाती है।
  • राजस्थान में सामान्य मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला व समस्याग्रसत मिट्टी परीक्षण प्रयोगशाला क्रमशःजयपुर, जोधपुर में है।
  • शीत ऋतु की रात्रियों में तापमान हिमांक बिन्दु तक चले जाने से फसल नष्ट हो जाती है, इसेपाला पड़ना कहते हैं।
  • राज. का अधिकांश भाग की समुद्र तल से औसत ऊंचाई 370 मीटर या कम है।

राजस्थान में लाल-लोमी मृदा उदयपुर, डूंगरपुर, बाँसवाड़ा तथा चित्तौड़गढ़ के कुछ भागों में पाई जाती हैं।

– मिट्‌टी की निचली सतह से ऊपर की ओर कोशिकाओं द्वारा जल रिसाव से पश्चिमी राजस्थान की मिट्‌टी

अम्लीय और क्षारीय तत्त्वों से संसकित हो जाती है।

– थार मरुस्थल में ग्रेनाइट और बलुआ पत्थर शैलों से बलुई मिट्‌टी का निर्माण हुआ है।

– दक्षिणी भाग में ग्रेनाइट, नीस और क्वार्ट्‌जाइट शैलों से लाल-लोमी मिट्‌टी का निर्माण हुआ है।

– कपास की कृषि के लिए ‘काली मिट्‌टी’ आदर्श इसलिए मानी जाती है क्योंकि ये अधिक आर्द्रता ग्राही

होती है।

– मिट्‌टी में खारापन व क्षारीयता की समस्या का समाधान खेतों में जिप्सम का प्रयोग है।

– जल में सोडियम क्लोराइड की अधिकता से मिट्‌टी क्षारीय हो जाती है।

– काली उपजाऊ मिट्‌टी मुख्यत: दक्षिणी पूर्वी पठारी भाग में पायी जाती है।


– सर्वाधिक उपजाऊ मिट्‌टी :- जलोढ़ / दोमट मृदा।

– राजस्थान के बनास नदी के प्रवाह क्षेत्र में भूरी मिट्‌टी का प्रसार है।

– राजस्थान में सर्वाधिक क्षेत्र पर विस्तृत मिट्‌टी :- रेतीली मृदा।

– पेडॉलोजी :- मृदा अध्ययन का विज्ञान।

– पश्चिम राजस्थान में वायु अपरदन सर्वाधिक होता है।

– सर्वाधिक जल अपरदन राजस्थान में चम्बल नदी द्वारा होता है।

– एकीकृत बंजर भूमि विकास कार्यक्रम :- 1989-90 से कार्यान्वित। 18 जिलों में संचालित।

– मरु विकास कार्यक्रम :- 1977-78 से संचालित। 16 जिलों के 85 खण्डों में संचालित योजना।

इस कार्यक्रम का उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों जैसे – भूमि, जल, हरित सम्पदा आदि के अधिकतम उपयोग

द्वारा ग्रामीण समुदाय के आर्थिक विकास को बढ़ावा देना है।

– सुखा संभावित क्षेत्र कार्यक्रम (DPAP) :- वर्ष 1974-75 से प्रारम्भ। राज्य के 11 जिलों में प्रारम्भ।

– पहल परियोजना :- यह परियोजना नवम्बर 1991 में सीडा (स्वीडन) के सहयोग से प्रारम्भ।

 

 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *