राजस्थान के प्रमुख राजवंश एंव उनकी उपलब्धियां




जालौर के चौहान

  • जालौर दिल्ली से गुजरात व मालवा जाने के मार्ग पर पड़ता था। वहाँ 13वीं सदी में सोनगरा चौहानों का शासन था, जिसकी स्थापना नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान द्वारा की गई थी। जालौर का प्राचीन नाम जबालिपुर था तथा यहाँ के किले को ‘स्वर्णगिरी‘ कहते थे। सन् 1305 ई. में यहाँ के शासक कान्हड़दे चौहान बने। अलाउद्दीन खिलजी ने जालौर पर अपना अधिकार करने हेतु योजना बनाई। जालौर के मार्ग में सिवाना का दुर्ग पड़ता है, अतः पहले 1308 ई. में सिवाना दुर्ग पर आक्रमण कर उसे जीता और उसका नाम ‘खैराबाद‘ रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहाँ का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया। वीर सातल और साम वीर गति को प्राप्त हुए।
  • 1311 ई. में अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया और कई दिनों के घेरे के बाद अंतिम युद्ध में अलाउद्दीन की विजय हुई और सभी राजपूत शहीद हुए। वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। अलाउद्दीन ने इस जीत के बाद जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाभ के ग्रन्थ ‘कान्हड़दे प्रबंध’ तथा ‘वीरमदेव सोनगरा की बात’ में मिलती है।


नाडोल के चौहान

  • चौहानों की इस शाखा का संस्थापक शाकम्भरी नरेश वाक्पति का पुत्र लक्ष्मण चौहान था, जिसने 960 ई. के लगभग चावड़ा राजपूतों के आधिपत्य से अपने आपको स्वतंत्र कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान ने 1177 ई. के लगभग मेवाड़ शासक सामन्तसिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया था। 1205 ई. में लगभग नाडोल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में मिल गये।


सिरोही के चौहान

  • सिरोही में चौहानों की देवड़ा शाखा का शासन था, जिसकी स्थापना 1311 ई. के आसपास लुम्बा द्वारा की गई थी। इनकी राजधानी चन्द्रावती थी। बाद में बार-बार के मुस्लिम आक्रमणों के कारण इस वंश के सहसमल ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना कर अपनी राजधानी बनाया। इस के काल में महाराणा कुम्भा ने सिरोही को अपने अधीन कर लिया। 1823 ई. में यहाँ के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर राज्य की सुरक्षा का जिम्मा उसे सौंप दिया। स्वतंत्रता के बाद सिरोही राज्य राजस्थान में जनवरी, 1950 में मिला दिया गया।


हाड़ौती के चौहान

  • हाड़ौती में वर्तमान बून्दी, कोटा एवं बारां के क्षेत्र आते हैं। इस क्षेत्र में महाभारत के समय से मत्स्य (मीणा) जाति निवास करती थी। मध्यकाल में यहाँ मीणा जाति का शासन स्थापित हो गया था। पूर्व में यह सम्पूर्ण क्षेत्र केवल बून्दी में ही आता था। 1342 ई. में यहाँ हाड़ा चौहान देवा ने मीणों को पराजित कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। देवा नाडोल के चौहानों का ही वंशज था। बून्दी का यह नाम वहाँ के शासक बून्दा मीणा के नाम पर पड़ा। मेवाड़ नरेश क्षेत्रसिंह ने आक्रमण कर बून्दी को अपने अधीन कर लिया। तब से बून्दी का शासन मेवाड़ के अधीन ही चल रहा था। 1569 ई. में यहाँ के शासक सुर्जनसिंह ने अकबर से संधि कर मुगल अधीनता स्वीकार कर ली और तब से बून्दी मेवाड़ से मुक्त हो गया। 1631 ई. में मुगल बादशाह शाहजहाँ ने कोटा को बून्दी से स्वतंत्र कर बून्दी के शासक रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को वहाँ का शासक बना दिया। मुगल बादशाह फर्रुखशियर के समय बून्दी नरेश बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के कारण बून्दी राज्य का नाम फर्रुखाबाद रख उसे कोटा नरेश को दे दिया परन्तु कुछ समय बाद बुद्धसिंह को बून्दी का राज्य वापस मिल गया। बाद में बून्दी के उत्तराधिकार के संबंध में बार-बार युद्ध होते रहे, जिनमें मराठे, जयपुर नरेश सवाई जयसिंह एवं कोटा की दखलंदाजी रही। राजस्थान में मराठों का सर्वप्रथम प्रवेश बून्दी में हुआ, जब 1734 ई. में वहाँ के बुद्धसिंह की कछवाही रानी आनन्द कुँवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्कर व राणोजी को आमंत्रित किया।

1818 ई. में बून्दी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली और बून्दी की सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर हो गया। देश की स्वाधीनता के बाद बून्दी का राजस्थान संघ में विलय हो गया।


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